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“दस साल से पड़ोसी की झोपड़ी में जिंदगी, न आवास मिला न पेंशन – मंसाडीह के राजू राय की बेबसी”

यहाँ तिसरी प्रखंड के मंसाडीह पंचायत की एक मार्मिक और अनदेखी गई कहानी सामने आई है, जो सरकार की योजनाओं की ज़मीनी हकीकत को बयां करती है।

 

राजू राय की उम्मीदें अब भी अधूरी हैं…

 

मंसाडीह पंचायत निवासी राजू राय पिछले दस वर्षों से अपने ढह चुके मिट्टी के घर की जगह एक पक्के आशियाने का सपना देख रहे हैं। आंखों की रोशनी गंवा चुके विकलांग राजू राय और उनकी पत्नी पूजा कुमारी, अपने दो बच्चों के साथ अब तक पड़ोसी की जर्जर झोपड़ी में रहने को मजबूर हैं। बरसात के दिनों में यह झोपड़ी भी किसी तालाब से कम नहीं लगती—हर कोना पानी से भर जाता है।

 

पूजा कुमारी, जो अब परिवार की अकेली कमाने वाली हैं, पहले ईंट भट्टा में काम कर किसी तरह गुज़ारा कर रही थीं, लेकिन अब वो काम भी बंद हो चुका है। इतने संघर्षों के बावजूद न तो विकलांग राजू राय को अब तक पेंशन मिली है, न ही कोई स्थायी आवास।

 

जब पंचायत सचिव से इस बारे में पूछा गया, तो उन्होंने बताया कि राजू राय का नाम ‘आबुआ आवास योजना’ में सूचीबद्ध है, यहां तक कि जियो टैगिंग भी की गई है, लेकिन ‘प्राथमिकता सूची’ में नाम नीचे होने के कारण अब तक आवास नहीं मिला।

 

सवाल यह उठता है कि क्या एक नेत्रहीन और बेसहारा परिवार को सरकार की योजनाओं में प्राथमिकता नहीं मिलनी अबचाहिए? क्या केवल सूची में नाम होने से लोगों की जिंदगी संवर जाती है?

 

राजू राय का परिवार अब भी एक पक्के घर और पेंशन की आस में है… लेकिन क्या ये आस कभी हकीकत बन पाएगी?

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